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Haryana

73वें निरंकारी समागम पर सद्गुरू माता सुदीक्षा जी का मानवता को संदेश

December 05, 2020 08:20 PM
पंचकूला  , 05 दिसम्बर--- अग्रजन पत्रिका ब्यूरो-- मानव भौतिक साधन के पीछे भागने की बजाय, मानवीय मूल्यों को अपनाने की ओर ध्यान केन्द्रित करेगा तो जीवन स्वयं ही सुदंर बन जायेगा।
ये उद्गार सद्गुरू माता सुदीक्षा जी महाराज ने तीन दिवसीय 73वें वर्चुअल वार्षिक निरंकारी संत समागम के अवसर पर दिनांक 5 दिसंबर को मानवता के नाम प्रेषित अपने संदेश में व्यक्त किए  वर्चुअल रूप में आयोजित इस संत समागम का आनंद विश्व भर में फैले निरंकारी परिवार के लाखों श्रद्धालु भक्त एवं प्रभु प्रेमीजनों ने मिशन की वेबसाईट एवं संस्कार टी. वी. के माध्यम से प्राप्त किया।
माता जी ने वैश्विक महामारी कोरोना वायरस के संक्रमण के विषय में बताते हुए कहा कि इस नकारात्मक वातावरण में संसार ने यह जाना कि जिस माया के पीछे वह भाग रहे हैं, सही अर्थ में तो वह तो तुच्छ भौतिक साधन मात्र हैं और इनका साधन के रूप में ही उपयोग किया जाना चाहिए। मानव अपने दैनिक कार्याे में इतना व्यस्त हो जाता है कि अपने परिवार के लिए भी समय नहीं दे पाता। इन सभी भौतिक वस्तुओं के पीछे मनुष्य अपना सुख चैन तक खो देता है। इस विकट परिस्थिति में सभी ने यह देखा कि लोग किस प्रकार से स्वार्थ से परमार्थ की दिशा की ओर बढ़ रहे हैं जिसे भी जिस रूप में ज़रूरत हुई, चाहे वह व्यक्तिगत रूप हो या किसी संस्था के माध्यम द्वारा, उसे उसी रूप में सहायता दी गई। 
इस अभियान में संत निरंकारी मिशन का महत्वपूर्ण योगदान रहा। सीमित दायरे में केवल स्वयं के लिए न सोचकर, समस्त संसार को अपना माना। विश्वबंधुत्व एवं दीवार रहित संसार का उदारचरित भाव मन में रखकर हर ज़रूरतमंद को अपने सामथ्र्यनुसार सहायता की। स्वयं की पीड़ा को भूलकर दूसरों की पीड़ा का निवारण करने का प्रयास किया। इन विषम परिस्थितियों में मानवीय मूल्य ही काम आये। लोगों की मदद करके सच्चे अर्थो में मानव, मानव कहलाया और यह साबित किया कि मानवता की सेवा ही परम् धर्म है। 
सद्गुरू माता सुदीक्षा जी ने कहा कि संसार को निरंकार द्वारा सर्वोत्तम उपहार ‘मानवता’ के रूप में प्राप्त हुआ है। प्राचीन काल से ही संतों ने यही समझाया है कि इस भौतिक माया को इतना महत्व न दें कि जीवन में इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है। भौतिक साधनों को महत्व न देकर मानवीय मूल्यों को महत्व देना चाहिए जैसे प्रीत, प्रेम, सेवा, नम्रता और इन्हें अपने जीवन में ढालना चाहिए। तभी जीवन परिपूर्ण हो सकता है। परमार्थ को ही अपना परम लक्ष्य मानकर स्वयं का जीवन उज्जवल कर सकते हैं। इसी से ही जीवन में एकत्व के भाव का आगमन होता है और हमारे आचरण एवं व्यवहार में स्थिरता आ जाती है। जब परमात्मा की अनुभूति होती है तब स्थिर से मन का नाता जुड़ जाता है और जीवन सहज व सरल बन जाता है। फिर माया रूपी भौतिक वस्तुओं को केवल एक जरूरत समझते हुए उस ओर अपना ध्यान आकर्षित नहीं करते। केवल परमार्थ, अर्थात् सेवा, परोपकार ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य बन जाता है।
अंत में माता जी ने श्रद्धालु भक्तों को प्रेरित किया कि परमात्मा के साथ एकत्व का भाव गहरा करते जायें जिससे जीवन में स्थिरता प्राप्त हो। जिससें दिलों में प्रेम बढ़ता जायेगा और उसी प्रेम के आधार पर हम संसार के साथ एकत्व का भाव स्थापित कर पायेंगे। सद्गुरू माता जी ने कहा कि हमें किसी स्वार्थ या मजबूरी के कारण नहीं, बल्कि इसलिए प्रेम का मार्ग अपनाना चाहिए क्योंकि केवल वही एक उत्तम मार्ग है। स्वार्थ भाव से मुक्त होकर साधनों को साधन मात्र ही समझकर इस सच्चाई की ओर आगे बढ़ते चले जाये
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